Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९४

१७. ।श्री अमर देव जी ळ वर दी बखशीश॥
१६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>१८
दोहरा: इस प्रकार सेवा करहिण, हरख शोक अुरि ताग।
कहो किसू को किसी बिधि+, धरहिण न मन बडभाग ॥१॥
निसानी छंद: घटा शाम इक निसा महिण, पसरो अंधकारा।
को को बरखै बूंद धरि, करदमु१ करि डारा।
सरद काल पाला परे, तन सुकचहिण सारे।
तूल२ तुलाई कै अगनि, सीतहि निरवारे३ ॥२॥
रही जाम जब जामनी, भा मज़जन काला।
चले कलस ले हाथ महिण, आलस को टाला।
भरो जाइ, सिर पर धरो, हटि आवन लागे।
सने सने४ स्री अमर जी, पग राखहिण आगे ॥३॥
-फिसलहि पग कलसा गिरहि, जल पहुणचहि नांही।
टरहि समो इशनान को-, इस चिंता मांही।
धरमसाल के पंथमहिण, घर हुतो जुलाहे५।
गिरो नीर तिन ते तहां, करदम बहु तांहे ॥४॥
मंद मंद बूझन गिरैण, पुन पंक सु यां ते६।
अधिक अंधेरो हुइ रहो, मग लखो न यां ते।
इक करीर को किलक७ तहिण, छिति गडो जुलाहे।
चीर बुनहिण तिस बाणधि करि, कुंभल८ पुन मांहे ॥५॥
आए जबि श्री अमर तहिण, पग कीले लागा।
निकट गिरे कुंभल बिखै, नहिण संभलि आगा।
कलस बचावनि कारने, बल कीन बडेरा।
नीर न गिरने दीन तिसु, थंभो तिस बेरा ॥६॥
नीठ नीठ कलसा तबहि, सिर अूपर राखो।


+पा:-किस बिधी।
१चिज़कड़।
२रूईण दी।
३ठढ ळ दूर करदे हन।
४सहिजे सहिजे।
५जुलाहे दा घर।
६इस करके चिज़कड़ सी।
७किज़ला।
८खज़डी।

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