Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) १९३

१७. ।सिज़खी परखं दे ताअु ते कसवज़टीआण॥
१६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>१८
दोहरा: भयो मेल जबि अनदपुरि, चहुदिशि ते सिख आइ।
भई भीर दीरघ तहां, दरस चाहि अधिकाइ ॥१॥
चौपई: तबहि मेवरो गुर ढिग गयो।
थिर है अरग़ गुग़ारति भयो।
महाराज! संगति समुदाई।
सुनि आइसु चहुदिशि ते आई ॥२॥
बाणछति दरशन चंद तुहारो।
जिम चकोर तिम मिले हग़ारोण।
सागर सम अुमडे गन आए।
चहुदिशि पुरि के डेरे पाए ॥३॥
सुनि कलीधर हुकम बखाना।
जहां दमदमा अूच महाना।
तिस के निकट अुतंग१ सथाना।तहां सुधारहु बहु मैदाना ॥४॥
पुन शमियाने तहां लगावहु।
तंबू रुचिर कनात तनावहु।
सुनति मेवरो बाहिर आयो।
सभि को हुकम हग़ूर सुनायो ॥५॥
तूरन दास संभारनि कीने।
हुइ आइसु अनुसारि प्रबीने।
लगि नर गन सो थाइ सुधारी।
बिखम हुती कीनी सम सारी ॥६॥
पुन तंबू इक रुचिर लगायो।
बहुत दरब जिस अूपर लायो।
दीरघ चहुदिशि तनी कनात।
लाल रंग की शुभति बनात ॥७॥
तांनि चानंी लगि चहुं ओर।
रेशम ग़री लगी जिस डोर।
कलस चोब कंचन के बने।


१अुज़चा।

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