Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९९

सभि संगति कौ दयो सुनाइ।
इहु मेरो अब रूप सुहाइ ॥३२॥
इस महिण मो महिण भेद न कोई।
अहै एक की देह जु दोई।
बिदति भए गुर संगति मांहि।
गुर श्री अमर अपर हुइण नांहि१ ॥३३॥
पुन बोले मुख चंदु सुधा से२।
आनद कंद बिलद निवासे।
सुनि पुरखा ग्रहि संतति३ का है?
दुहिता पुज़त्र भए सु कहां हैण? ॥३४॥
हाथ जोरि करि बिनै बखानी।
सभि रावरि को गात महानी।
तदपि जु पूछो सम अनजाने।
कहोण सुने गुन खानि महाने ॥३५॥
दोइ पुज़त्र हैण मोहिन मुहरी।
दै तनिया४ सभि किरपा तोरी।
सुनि बोले सुनि पुरखा अबै।
हित लाइक तुहिभाखोण सबै ॥३६॥
अबि खडूर को बसिबो छोरि।
अपर सथान बास को टोरि५।
श्री नानक मुहि दीन गुराई।
क्रिपा धारि पुन गिरा अलाई ॥३७॥
-हम जहिण बसैण थान दिहु ताग।
अपर सथल करि थित६ बडभाग-।
तबि के हम खडूर महिण आए।
बसते संमत कितिक बिताए ॥३८॥
सिरीचंद अरु लखमीदास।


१श्री अमरदास जी गुरू हन, होर ने नहीण होणां।
२अंम्रत जैसे।
३संतान।
४पुज़त्रीआण।
५वज़संा ढूंडो।
६टिकाणा।

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