Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २००
२८. ।श्री रामराइ जी दी ईरखा॥
२७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>२९
दोहरा: अशटम तन धरि श्री गुरू,
तखत बिराजे दीह।
मूरति अलप सरीर है,
रिदा गूढ, बच लीह१ ॥१॥
सैया: सुंदर सूरत माधुरी मूरति,
पुरति कामना सिज़खनि की।
शांति सरूप धरे प्रभु पूरब,
आठम देह सु नौतन२ की।
जोण महिपालक पोशिश को तजि,
पै३ पहिरै हित भांतन की४।
श्री हरिक्रिशन तथा दुति पावति
संगति प्रीति करे मन की ॥२॥
गुर नानक आदि ते जोण निशचा मन,
तोण ब्रहम गान महां रस होवा।
सिख संगत के अघ नाशनि को
दरसंन दिखाइ,भले दुख खोवा।
पर पौत्र गुरू हरिगोविंद को,
गुरता कहु भार सहारि खरोवा।
गन मेल मसंद बिलद मिले जिम
श्री हरिराइ, सभै तिम जोवा ॥३॥
निज पास करैण अरदास तिसी बिधि,
पाइनि पंकज सीस निवावैण।
गन आनि अुपाइन को अरपैण,
मन कामना आप अनेक अुठावैण।
समुदाइ सदा मन बाणछति पावति
जोण धरि भावना को ढिग आवैण।
निज सिज़खनि की बहु श्रेय करैण
१अंम्रित (वरगे) ।संस: लेह = अंम्रित। (अ) बचन पूरने हन। ।पंजा, लीह = लीक, पूरने॥
२नवीन (सरीर धरिआ)।
३रि, होर।
४हित करके कई तर्हां दी।