Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २०३

तबि मैण सुनि करि होयहु तारि।
कूरा धरम कीनि१ तिस बारि।
जीति लीन मैण झगरा सारो।
अवनी२ लीन हरख करि भारो ॥१३॥
जब मैण आइ बसावन कीना।
-भयो अधरम-प्रेत सभि चीना३।
चलि आए लखि पाप महाना।
देश देश ते भे इक थाना ॥१४॥
सने सने नर दिये अुजारो।
आप आइ करि बसे हग़ारोण।
इसी रीति डेरा पर गयो।
लाखहुण प्रेत बास को कयो ॥१५॥
तिनि डर ते अबि लोक न जाइण।
महां पाप करि, सो फल पाइण।
नहीण जतन को४ बिना तुमारे।
पावन थान बनै, पग धारे५ ॥१६॥
श्री अंगद तबि रिदे विचारी।
-हमरे पुज़त्र गरब अुर भारी।
कहो बाक सो मानहिण नांही।
चाहति गुरता६ हुइ हम पाही ॥१७॥
इहु सेवक की वसतू अहै।
रहि अनुसार सेव करि लहै।
सिरी अमर सोण इरखा ठानैण।
अपने महिण कछु दोश न जानैण ॥१८॥
अपर सिज़ख भी चाहति केई।
दासू के पज़खी हहिण जेई।
यां ते अबि सभिहनि के मांही।


१झूठा धरम कीता, भाव सहुण झूठी खा लई।
२ग़िमीण।
३सारे प्रेतां ने जाणिआण।
४कोई।
५चरन पाइआण (आपदे)।
६गुरिआई।

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