Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) २००
१८. ।पंज पिआरे॥
१७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>१९दोहरा: दया सिंघ को धीर दे, तंबू बिखै बिठाइ।
कलीधर निकसे वहिर, रिस जुति बदन दिखाइ ॥१॥
चौपई: श्रोंत भीगो पान क्रिपाना।
नरनि लखो गुर हती क्रिपाना।
तिसी रीति पुन थिरे प्रयंका।
हेरति सगरे भए सशंका ॥२॥
धुनि अूची पुन गुरू अुचारा।
और देइ सिर को सिख पारा।
कारज परो आन करि मेरा।
सिर दीने बिन होहि न, हेरा१ ॥३॥
सुनि पिखि सरब रहे बिसमाई।
बैठे तूशन ग्रीव निवाई।
-पूरब तौ संभ्रम२ कुछ अहे।
अबि तौ निशचै पतनौ लहे३- ॥४॥
लखो सभिनि४ -इक हतो अगारी।
अबि चाहति दूसर को मारी-।
कितिक बेर पुन कहि जगदीशा।
को पारो सिख देवहि सीसा ॥५॥
जबि हूं तीजो बचन अुचारा।
धरम सिंघ तबि रिदै बिचारा।
जाति जाट हसतन पुरि वासी।
मन सोण कहि -कोण भा प्रणि नाशी५ ॥६॥
सरब सरीर दीनि गुर ताईण।
करहि तथा जिय जथा सुहाई६।
गुर करतब महि कोण करि शंका।
१(इह गल असां चंगीतर्हां) वेख लई है कि.......।
२संसा।
३हुण तां निसचे मरना दिज़सदा पिआ है।
४सारिआण ने लख लिआ।
५आपणे प्रण तोण किअुण फिरना हैण (जो अज़गे दज़सदे हन:-)
६जिवेण जीय विच आवे तिवेण करन (गुरू जी)।