Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २०१

२६. ।प्रिथीआ प्रलोक गमन॥
२५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>२७
दोहरा: चिंता चित लतान है, चंदू दुशट बिलद।
चाहति गुरु अपकार१ को, निस बासुर मतिमंद ॥१॥
निशानी छंद: जतन कपट के चितै चित, बड घाति बनावै।
-पूरब करे अुपाइ जे, को पेश न जावै।
शाहुलखहि नहि इम हनौण, करि कै चतुराई।
किम बैठो घर महि मरहि, नित अनद वधाई ॥२॥
अबहि शाहु को देखि रुख, हरखहि जिस काला।
मोहि साथ बातैण करै, तबि कहौण रसाला२।
तसकर राखनि दोश को, मैण पुनह जनावौण।
अपर घात नहि३ दंड तबि, कहिकै लगवावौण- ॥३॥
अवसर को हेरति रहति, दिन कितिक बिताए।
नर प्रिथीए को ढिग अयो, दे पज़त्र पठाए।
खोलि पठी इम लिखो बिच, तूं सुमति बडेरो।
कारज सभि पूरन करहि, भरवासा तेरो ॥४॥
हग़रत को अुपदेशि कै, लवपुरि महि लाए।
इह कारज तुझ ते सरहि, नहि अपर बनाए।
रिपु हतिबे को समै अबि, है निकट तुमारे।
जे पुकार को मिसि बनहि, मुझ लेहु हकारे ॥५॥
दोस संदोह अरोप करि४, कहि शाहु गहीजै।
लिखो आपि मैण आइ हौण, मिलि जतन करीजै।
पठिकै पाती चितो चित, -करि बूझनि शाहू।
पुन प्रिथीआ बुलवाइ हौण,तूरन निज पाहू- ॥६॥
इम निशचे करि प्रात अुठि, मति मंद चितारै।
गमनो हग़रत के निकट, नर निमहि हग़ारैण।
रजत दंड५ गहि अज़ग्र चलि, को नरनि हटावै।
संग सुभट गमनति पगनि, चहुदिशि महि जावैण ॥७॥


१हानी (अ) निरादर।
२रसदाइक (वाक)
३(जे) होर (कोई) दाअु ना (लगा)।
४बहुते दोश थज़प के।
५चांदी दे डंडे (चोबाण)।

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