Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) २०२

दे अहार बहुरबरतायो ॥२२॥
अचि अचि असन नमो करि जोरि।
बैठे पुन कनात चहुं ओर।
केतिक पढति सिंघ गुरबानी।
केतिक सुनति अनद महि सानी१ ॥२३॥
निस महि अलप कितिक चिर सोए।
जाग्रन कीनि तहां सभि कोए।
भई प्राति ते जाइ शनाने।
सभि मिलि गए गुरू इसथाने ॥२४॥
प्रथम कनात सु खोलि हटाई।
चिता भसम कीनसि इक थाईण।
आयुध नहीण एक तहि पायो*।
हेरि सभिनि को मन बिसमायो ॥२५॥
असथी को तहि लेश न कोई।
ईणधन भसम परी बहु जोई२।
देहि सहित कीनसि प्रसथाना।
मग गमने पिखि निशचै ठाना ॥२६॥
धंन गुरू तुमरी गति नारी।
निरनै करि करि सभिनि अुचारी।
सकल बिभूति बटोरि बनाई।
रचो सिंघासन पुन तिस थाईण ॥२७॥
तिस थल को दरशन जो करै।
जनम जनम ते पातक टरैण।
अधिक पुंन को प्रापत होइ।
धरै कामना पूरन सोइ ॥२८॥
कबिज़त: सुंदर गुदावरी, बिहीन मल चलै जल,
सलिता सु तुल गंगा कूल छबि पावई।
खरे खरे३ तरुखरे, हरे हरे पाति जरे,


१अनद विच मिले होए।
*इह बी रवाइत है कि इक क्रिपान निकली सी।
२देखी।
३चंगे चंगे।

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