Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २०७

यही संचिबे को बर बारी१ ॥३७॥
निस दिन चितवन बलकल२ अहै।
द्रिड़ जड़्ह सदा भगति महिण रहै।
सति संतोख आदि गुन सारे।
चहूंदिशन बिसतरति सु डारे३ ॥३८॥
आतम गान महां फल लागे।
रस अनद प्रापति बडभागे।
अस तरु प्रेम बरधबो भाअु४।
अुर श्री अमर अचल बर थाअुण५ ॥३९॥
चलिबे समेण नीर भरि आवा।
नमो करति पद पदम भिगावा६।
मिलो रहो बीतो चिरकाल।
बिछुरन ते दुख लहो बिसाल ॥४०॥
पुन धीरज दे अधिक गुसाईण।
करो पठावन को तिस थाईण।
गुर सनमुख मुख राखि पियाना।
पाछल दिशा धरत पग जाना७ ॥४१॥
इस प्रकार सुत परखन करे।
भरम सरब सिज़खन के हरे।
जानति भए८ -करी बहु सेवा।
लिये रिझाइ अधिक गुर देवा ॥४२॥
गुर परमेशुर सेव बसी है।
जिन की हंता रिदे नसी है।
कोण न होहि तिन के अनकूली९।
सिमरहिण जे अुर सभि किछु भूली ॥४३॥

१सिंचं लई स्रेशट जल है।
२छिज़ल।
३डालीआण।
४ऐसा प्रेम रूपी ब्रिज़छ जिस विच भाव (पिआर दे वलवले सदा) वसदे हन।
५गुरू अमर जी दे स्रेशट हिरदे विच (इस ब्रिज़छ दा) अचल टिकाणा है।
६चरनकमल भिज़ज गए।
७जाणदे सन (श्री अमर जी)।
८भाव, सिज़ख जाण गए।
९अनुसार भाव क्रिपालू।

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