Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) २११
लेनहार तिन भज़खन करैण ॥३९॥
सामी अंस चुरावैण जेई।
इसी दशा दुख पावैण तेई।
हम तबि बरज रहो, नहि मानोण।
यां ते हसे ब्रितंत सु जानोण ॥४०॥
इम कहि दूर दमदमा रहो।
पहुचनि समा न मन महि लहो।
तरु कीकर१ अवलोकनि करे।
तहां थिरे प्रभु डेरा करे ॥४१॥
तबि सिज़खन कर जोरि बखाना।
प्रभु जी! करो न हम कुछ खाना।
दोनहु समे रहे अबि खाली।
सभि को बापी छुधा बिसाली ॥४२॥
किम इह निसा बतावनि करैण।
प्राति होति पुन चलिबो परैण।
सुन श्री मुख ते हुकम बखाना।
चढहु कीकराण खरी महाना ॥४३॥
बल ते इनहु हिलावनि करीए।
मन भावति अचवहु छुधि हरीए।
मानि बाक को भए अरोहनि।
गहि झूंे कीने द्रिग जोहन ॥४४॥
अनिक भांति केभए अहारा।
खुरमे ब्रिंद जलेब अुदारा।
मोदक आदि परे समुदाई।
गन भोजन बरखा बरखाई ॥४५॥
खाइ खाइ करि सिख त्रिपताने।
कितिक सिंघ नहि कीनसि खाने।
बूझो प्रभु तुम कोण नहि खायो।
सगरे दिवस हाथ नहि आयो ॥४६॥
हाथ जोरि कहि सिज़ख जि साने।
श्री प्रभु! आप न कीनसि खाने।
१किज़कर दा ब्रिज़छ।