Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) २१४
२०. ।गुरू जी ने अंम्रत छकंा॥
१९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>२१
दोहरा: पंचहु को समरज़थ करि,
सभि बिधि श्री गुरदेव।
सादर तिनहु बिठाइ करि,
लखहि न को गुर भेव१ ॥१॥
कबिज़त: पूरन परम जोति पंथ के अुदोति प्रभू
अुज़ठके सिंघासन ते खरे आप होइ करि।
वाहिगुरू अुबाचति सु पाहुल को जाचति
बिसाल तेज राचति इज़कत्र कर दोइ करि२।
खड़ग निखंग कटकज़स कै, कुदंड कंध,
जमधरा धरि कै करद चज़क्र जोइ करि३।
जेसै मम दीनि, बिधि संग तुम लीनि पंज४,
तैसे मोहि दीजीए संदेह सभि खोइ करि ॥२॥
अदभुत बानी सुनि कान मै हरानी होइ
सिंघन बखानी कहां कहो आप बैन को?
जाति के कमीन, दीन, रंक हैण अधीन, हीन,
काम क्रोध पीन, मन छीन है, न चैन को५।
बिशई मलीन जीव सभि ते सदीव नीव
जंतु सु रीब हम, भलो गुन है न को।
एक बल भयो तुम हाथ दयो सीस धर,
नयो रंग थियो मयो कियो सुख ऐन को६* ॥३॥
जीवन के जीव७, बल सीव हो८ सदीव तुम,
तीन लोक नाथ सभि सुरासुर बंदते९।
१गुरू जी दे भेद ळ कोई नहीण जाण सकदा।
२कज़ठे करके दोवेण हज़थ।
३जमधर, करद ते चज़क्र धारन करके (जोइकर =) दिज़स रहे हन।
४पंजाण ने।
५मन दुरबल ते बेचैन है, (अ) मन छिनभर चैन नहीण लैणदा (टिकदा नहीण)।
६क्रिपा करके साळ सुज़खां दा घर कर दिज़ता है।
*पा:-कियो हियो सुख ऐनको।
७जीवाण दी जिंद।
८बल दी हज़द हो।
९देव दैणत (तुहाळ) मज़था टेकदे हन।