Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 205 of 375 from Volume 14

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) २१७

२९. ।हलवाई सिज़ख। जीत मज़ल बज़ध। फते शाह दा नठ के ओल्हे होणा॥
२८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>३०
दोहरा: श्री कलगीधर जहि थिरे, हलवाई सिख एक।
हाथ जोरि बोलति भयो, सुनीअहु अुदधि बिबेक! ॥१॥
सैया छंद: अधिक लालसा मोहि रिदे महि
प्रभु के काम अरूं रन थानि।
शसत्र हाथ महि गहे न कबहूं१
तोमर तुपक न बान क्रिपान।
तअू होति अुतसाहि बडो अुर
हतौण रिपू को, करहु बखान।
२देहु तुरंगम, ते अरूढ हुइ३
खड़ग दिहो पुन सिपर महान ॥२॥
श्री कलगीधर सुनि मुसकाने
कोतल४ खरे तुरंगम हेरि।
जिन कौ बिरद गरीब निवाजनि५
लिहु कुमैत चढियहि बिन देर।
हुकम पाइ गहि वाग अरूढो
प्रभु जीदीजहि शसत्र बडेर।
तोमर किधौण तुपक धनु तीर,
कि जो मैण हतौण कि दिहु शमशेर ॥३॥
बिगसति खड़ग सिपर तबि बखशे
बूझति भयो हतन कौ दाइ।
किस कर सिपर गहौण? किस मैण असि?
किम मारौण? मुहि देहु बताइ।
देखति सुनति दुहन दिशि के भट
हसहि परसपर पुनि बिसमाइ।
अजब चरिज़त्र प्रभू के लखीयति
जिम चिरीअनि ते बाज तुराइ ॥४॥


१फड़े नहीण कदे (मैण)।
२आप कहि दिओ भाव आगिआ दिओ।
३तिस (घोड़े) ते चड़्हके।
४जो ग़रूरत लई खाली घोड़ा खड़ा होवे।
५जिन्हां दा बिरद गरीब निवाज है (तिन्हां कहिआ)।

Displaying Page 205 of 375 from Volume 14