Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) २१८

करति भए तिम नर समुदाई ॥२५॥
तजि निज ग्रामनि को चलि आए।
रहे दमदमे पढन लगाए।
पुन गुर कहो लहहु सुख सारे।
धरमसाल रचि ग्राम मझारे ॥२६॥
सिख संगति तिस बीच बिठावहु।
धरहु भाअु अुर टहिल कमावहु।
जोड़ करहु सति संगति केरा।
गुरबाणी मन रुचो१ घनेरा ॥२७॥हुइ है सुख नहि चड़ि है ताप।
नाश होइगे संग संताप।
धरि करि त्रास सकल ने मानी।
कही गुरू जिम सभि तिम ठानी ॥२८॥
दया धरम अरु पठिबो बानी।
सिज़खी पसरी देश महानी।
पुन सिरं्हद के सूबे जानि।
गुरू टिके ते दुखी महान ॥२९॥
लिखो पज़त्र निज जोर जनायो।
डज़ले के समीप पहुचायो।
गयो दुरग महि ले करि सोई।
सतिगुर को सुध तिस की होई ॥३०॥
एक सिज़ख को तबै पठायो२।
गुपति रहहु सुनि कहां पठायो।
सुनि कै डज़ला तबि का कहै।
नहीण डरैण, कै डरपति अहै३ ॥३१॥
अंतर इत अुत सिख बिचरंता।
डज़ला कागद तुरत सुनता।
कोण निज बुरा करनि अभिलाखा।
पातशाहु रिपु गुर ढिग राखा ॥३२॥


१प्रीत करो।
२गुरू जी ने सिज़ख ळ कहिआ गुपत रहीण सुणीण (वग़ीर खां ने की कहि) भेजिआ है।
३या डरदा है।

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