Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२१

सो अबि लौ अुह थान सुहावति।
बिदति अहै जग मैण सिख गावति ॥२३॥
गोइंदवाल कोस तिस थल ते।
जहिण ते सूधे हुइ करि चलते।
निस महिण सदन रहहिण गुर आइसु।
दिन महिण दरसहिण तहां सिधाइसु ॥२४॥
इसी प्रकार कितिक दिन बिते।
परम प्रसंन गुरू करि लिते।
प्रेम सहत मन नम्रि बिसाला।
सेवहिण चरन कमल सभि काला ॥२५॥
श्री अंगद सभि गुन के धाम।
सदा सुशील परम निहकाम।
भगति रूप धरि जगत दिखायो।
हरख न शोक न कबि अुर आयो ॥२६॥
मान अमान१ समान महाने।
राग न दैख किसी सोण ठाने।
अहं ब्रहम२ निशचल ब्रिति अंतर।
निज सरूप सोण लगे निरंतर ॥२७॥
जिस३ को छुवै बिकार न कोई*।
पहुणचहि४ मन बाणी नहिण दोई+।
जाननीय५ बुधि करि कै जोअू।
पदम पज़त्र सम लिपहि न सोअू६ ॥२८॥
शसत्रन सोण न बिनासो जाइ।
अगनि नजरहि न पअुन अुडाइ।
जल नहिण डूबहि, नभ न बिलाइ७।

१आदर अनादर।
२मैण ब्रहम, भाव, ब्रहम गान।
३भाव ब्रहम ळ।
*पा:-कोअू।
४जिज़थे नहीण पहुंचदे भाव ब्रहम विच।
+पा:-दोअू।
५जानंे योग।
६कवल फुज़ल दे पत्र वाणग लिपाइमान नहीण हुंदा जो (ब्रहम)।
७दूर कर सके (अ) लीन कर सके।

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