Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२४

अंगीकार न तिस को होवै।
कबहुण नहीण तिन की दिश जोवैण ॥४२॥
अपनो नहिण प्रताप करि साकहिण१।
तूशन भई गुरू मुख ताकहिण।
करामात को सागर भारी।
बूंद समान जान नहिण पारी२ ॥४३॥
कबहुण न हित करि किसहुण दिखाई।
मनहु समीप न, एव छपाई३।
अजर जरन श्री अंगद जैसे।
भूत भविज़ख न अब भा तैसे ॥४४॥
दोहरा: रचनि संघारनि लोक त्रै,
अस शकती को पाइ।
निबल नरन ते दुख सहैण,
धंन गुरू सुखदाइ ॥४५॥
इत श्री गुरु प्रताप ग्रिंथे प्रथम रासे स्री अंगद गुण बरनन नाम
बिंसती अंसू ॥२०॥


१भाव शकतीआण आदिक आपणा प्रताप नहीण दज़स सकदीआण।
२पिआर ना कीता।
३इस तर्हां लुकाई है करामात कि मानोण कोल ही नहीण है।

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