Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) २२२
२१. ।खालसे दा वधंा॥
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दोहरा: जेतिक हुते हग़ूर महि,
सिर पर धरि बर केस।
पाहुल ले सिंघ नाम धरि,पहिरि काछ शुभ भेस ॥१॥
चौपई: श्री सतिगुर की संगति जहि जहि।
लिखे हुकमनामे गुर तहि तहि।
केस धारि सिर पर सिख आवैण।
होहि सिज़ख, नहि भज़द्र१ करावैण ॥२॥
जगत जूठ२ के नेर न जावैण।
पाहुल खंडे की ले आवैण।
लै के३ जहि तहि तूरन धाए।
सभि संगति को जाइ सुनाए ॥३॥
सुनि कै केतिक भे अनुसारी।
केतिक भए दुखी अुर भारी।
शासत्रन रीति नेम कोण तोरहि।
जाति पाति को किम हम छोरहि ॥४॥
जिन जिन मानोण से चलि आए।
गुर के चरन कमल सिर नाए।
बैठे हुते प्रभू के दरस।
निकट सिंघ धरि शसत्रनि हरश४ ॥५॥
इक सिख हाथ जोरि तिस घरी।
अज़ग्र प्रभू के बिनती करी।
साचे पातिशाहु! तुम पास।
सुनीऐ, करौण एक अरदासि ॥६॥
एक मसंद गयो घर मेरे।
हेरति अुठो अधीन घनेरे।
करि बंद सादर बैठायो।
१मुंडन।
२तमाकू।
३भाव हुकम नामे लैके।
४प्रभू दे दरशन लई प्रसंन बैठे सन नेड़े दे सिंघ शशत्राण ळधारके।