Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २२५
३२. ।धीरमल राम राइ मेल॥
३१ॴॴपिछलाअंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>३३
दोहरा: धीरमज़ल पाती लिखी, करी तरीफ अुदार।
सभि अुपमा के अुचित हो, सुनि सुत बरखुरदार! ॥१॥
चौपई: मोहि अनुज श्री गुरु हरिराइ।
तिह जेशट सुत गुन समुदाइ।
तुरकेशुर को बसि करि लीना।
जग महि बिदतो अग़मत पीना ॥२॥
तो सम अपर नहीण जग कोई।
इती शकति कित पज़यति सोई१।
तुव पित जैसे अनुज हमारा।
तिन ही सम मैण तोहि निहारा ॥३॥
गुरता वसतु हमार तुमारी।
सभि कारन ते लखि अधिकारी।
तेग बहादर दूर बडेरी२।
किम गुर बनि बैठो इस बेरी ॥४॥
चित महि कोण न चिंत कौ ठानैण?
महि महि महिमा महिती हानै३।
दरब हग़ारहु रोग़ संभारै।
बड ऐशरज आपनो धारै ॥५॥
शाहु निकटि बुलवावनि ठानो।
जोण कोण करि शज़त्र तहि हानो।
करे जतन मैण सरो न कोई।
बचो संघारन सभि ते सोई४ ॥६॥
यां ते सुधि तुव निकटि पठाई।
बनि आवै अबि करनि अुपाइ।
इम लिखि दूत पठावनि कीना।
जानो -रिपु हुइप्रान बिहीना- ॥७॥
बहुत मोल को इक सिरुपाअु।
१होर किस विज़च पा सकीदी है।
२दो (पीड़ीआण अुपर होण ते) दूर हन गुरिआई तोण।
३प्रिथवी ते महिमा (साडी) बड़ी हान करदे हन।
४सारे मारन दे (जतनां) तोण।