Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२९जिस ते घन हुाि, मोचहिण पानी१ ॥२६॥
सुनति तपे ने बात बिचारी।
हुतो गुरू सोण मतसरि भारी२।
आइण वहिर ते सिज़ख घनेरे।
रहति निकट पुन गमनैण डेरे३ ॥२७॥
तिन को देखि दुखति मन मांही।
गुरता गुरन सहि सकहि नांही४+।
महां तपहि५ चित चिंता धरिता।
निस दिन महां असूया६ करिता ॥२८॥
-खहिरे सेवक हैण मित मेरे।
नहिण भरमाइ जाइण तिस डेरे७-।
यां ते डरति रहति अुर मांहि।
निसि बासुर बहु निद कराहि ॥२९॥
गुरु कीरति राणका सु८ प्रकाशी।
सो९ तसकर दुरमती दुरासी१०।
चहति छादिबे मूरख मानी।
लखि अुपाइ को बोलो बानी ॥३०॥
भो खहिरो!११ तुम जानहु कारन।
जिस ते बरखा होति न बारन१२*।
खज़त्री ग्राम तुमारे अहै।
सो अपराध करति ही रहै ॥३१॥
१छज़डे पांी ळ भाव मीणह पवे।
२गुरू जी नाल ईरखा भारी (रखदा) सी।
३घराण ळ।
४गुरू जी दी गुरिआई सहि नहीण सकदा।
+गुरता गुर सहि सकहि सुनाहीण।५सड़दा।
६ईरखा।
७मतां भरम के अुस दे डेरे चले जाण।
८पूरनमाशी दे चंदरमां दी चानंी वत।
९सो भाव तपा।
१०चोर, खोटी नीयत वाला ।सं: दुराशय॥ (अ) झूठी आस वाला। ।संस: दुराशा॥।
११ओ! खहिरओ!
१२बज़दलां तोण। (अ) वज़सदी।
*पा:-जिसते अभि भी बरखा बार ना।