Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 216 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३१

अपन ग्राम ते देहु निकास।
जबि सो ग्राम निकसि कै जाइ।
बहुरो तुमारो है मन भाइ ॥३८॥
अपर ग्राम किस जाइ बसै है।
फेर तुमहिण नहिण संकट पैहै।
इमि सुनि कै सभि ने मन मानी।
कहहु तपा जी! तुम सचु बानी ॥३९॥
ग्रिहसती होइ पुजावन करिही।
आवहिण अनिक वहिर के नर ही।
हम तो तिस को मानैण नांही।
जाइ समीप तांहि निकसाहीण१ ॥४०॥
इमि कहि गमने खहिरे सारे।
हरखो तपा सु रिदै मझारे।अपन कामना पूरन जोई२।
इमि नहिण लखहि निकट म्रितु होई ॥४१॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे श्री अंगद अरु तपे को
प्रसंग बरनन नाम एकबिंसती अंसू ॥२१॥


१अुस ळ कज़ढ देणदे हां।
२इज़छा पूरी हुंदी देखी।

Displaying Page 216 of 626 from Volume 1