Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) २३३

३०. ।भीमचंद विदा। शसत्र विज़दा अज़भास॥
२९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>३१
दोहरा: मंद भाग की मति फिरी, गुर सिज़खी नहि भाइ।
जिम चाहैण प्रभु तिम करैण, तजैण किधौण अपनाइ१ ॥१॥
चौपई: फटक मनिद२ हुती मति काची।
ढिग सतिसंग रंग शुभ राची३।
बिछरो जबहि तथा रहि गइअू।
जथा प्रथम मूरख मति भइअू ॥२॥
जिम रवि किरन मुकर पर भासनि४।
करति हुतासन तुरत प्रकाशनि५।
तेज सहित हुइ जाति प्रतापी६।
मोह दार के दोवति खापी७ ॥३॥
जे रवि किरन छुअहि नहि तांहूं८*।
रहै तथा हुइ काज न काहूं।
तिम शरधा अुर ते गुर हरी।
रहो प्रथम सम कोणहुं न सरी ॥४॥
दिवस आगले रुखसद जाची।हंकारी मूरख मति काची।
गिरपति को आशै प्रभु जाना।
करनि बिसरजन को हित ठाना ॥५॥
बासुर जाम रहो जबि आई।
पुन सतिगुर निज सभा लगाई।
पठि मानव को महिप हकारा।
आयो ले समाज भट भारा ॥६॥


१आपणा कर लैं।
२बलौर वाणग।
३सतिसंग दे नेड़े होण ते शुभ मत विच रच गई सी।
४(आतशी) शीशे पर प्रकाशदीआण हन।
५भाव अज़ग प्रकाश कर दिंदीआण हन।
६(अुह शीशा) तेज संयुकत हो के (अज़गोण) तपावन हार हो जाणदा है।
७मोह रूपी (दार =) लकड़ी ळ साड़ देणदा है भाव आतशी शीशा हेठां पई लकड़ी ळ साड़दा है
तिवेण गुरू तेज दी समीपता बुज़धी ळ आतम तेज नाल भरके अंदरले मोह ळ साड़दी है।
८भाव छुहणो हट जावे शीशे ळ तां......।
*पा:-काहूं।

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