Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३८

२३. ।तपे दी मौत।॥
२२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>२४
दोहरा: तेजो के नदन१ जुअू* सेव करति दिन रैनि।
गमने हुते निकेत को, प्रेम भरे जुग नैन ॥१॥
चौपई: निकसे गुरू पिछारी आयो।
डेरे ग्राम बिखै दरसायो।
तहिण संगी निज कोइ न देखा।
सहत गुरू नहिण सिज़ख अशेा२ ॥२॥
बूझन कीनि गुरू कित गए?
सिख जे सगल संग ही लए।
कौन काज तिन को अस भयो।
ततछिन गमन वहिर को कयो? ॥३॥
सुनि किसि नर ने कथा बखानी।
पापी तपे दुशटता ठानी।
कहोकि -बरखा होवै तदा।
श्री गुर अंगद निकसहिण जदा- ॥४॥
सुनि राहक मूरखमति आए।
-निकसहु ग्राम- कठोर अलाए।
छिमा धारि गुरू वहिर पधारे।
नहिण घन बरखे किनहुं निहारे३ ॥५॥
करी अवज़गा सतिगुर केरी।
तपहि तपा मतसर ते हेरी४।
भयो अबहि अपराधी एहू।
अुचित दंड के सो लखि लेहू ॥६॥
मन बच क्रम५ ते कबि अपकारा।
नहिण कीनसि६, तज़दप दुरचारा७।

१भाव श्री अमरदास जी।
*पा:-हुते।
२सारे।
३बज़दल वर्हिआ (अजे) किसे नहीण देखिआ।
४तपा ईरखा नाल तपिआ (सड़दा) देखीदा है।
५सरीर।
६बुरा नहीण कीता गुरू जी ने कदे।
७तां भी पापी (तपा)।

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