Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 228 of 501 from Volume 4

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २४१

३२. ।भाई सज़धू दे घर अरथ मज़ल जी मिले॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>३३
दोहरा: सज़धू सिज़ख सभारजा१, प्रेम करे मन मांहि।
श्री अरजन सभि जानि करि, पहुचे तिस घर मांहि ॥१॥
चौपई: हेरि अनद रूप गुरुकेरा।
बंदन करी चरन तिस बेरा।
घटि घटि के नित अंतरजामी!
दास कामना पुरवहु सामी! ॥२॥
धनी सिज़ख ध्रमसाला छोरि२।
अुर की लखि आए मुरि ओरि३।
दीन बंधु यांही ते कहैण।
प्रेम बसी तुम को सभि लहैण ॥३॥
हाथ जोरि बहु अुसतति करि कै।
तरे४ अुतारे अुर मुद भरि कै।
ले करि गयो सदन के अंदर।
नौतन५ पलघ डसायो सुंदर ॥४॥
आसतरनि६ ते अूपर छाए।
करि बिनती सतिगुरू बिठाए।
जथा शकति करि अपर फरश को।
सिज़ख बिठाए धारि हरश को ॥५॥
और सरब सेवा करि नीके।
चरन पखारति भा सभि ही के।
श्री सतिगुर के चरन पखारे।
चरनांम्रित कुटंब७ मुख डारे ॥६॥
सरब सदन महि छिरकनि कीनसि।
भयो निहाल अधिक फल लीनिसि।


१भारजा सहत।
२(ते) धरमसाला छज़डके।
३(मेरे) रिदे दी जाणके मेरी तरफ आए हो।
४(सवारी तोण) हेठ।
५नवाण।
६विछौंा।
७संतान दे।

Displaying Page 228 of 501 from Volume 4