Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २४४

कहो तपे को नहिण को मानहि।
निज किदार ढिग सभि सो आनहिण।
खैणचति खैणचति भयो बिहाला।
बोलन ते थक रहो न चाला ॥३९॥
जबि चलिबे ते हटि सो रहिअू।
मोहन पिता१ आइ तबि कहिअू।
मास असथि२ जहिण जहिण लै जै हो।
तहिण तहिण बरखा घनकी पै हो ॥४०॥
सुनि के सभिनि घसीटो जदा।
निकसे प्रान भयो हति तदा।
-रहिण बरखा बिन खेत हमारे-।
इम बोलति अर चिंत बिचारे ॥४१॥
-एक मरे जीवहि सभि गाअुण-।
यां ते तोर लिए कर पाअुण।
आपो अपने खेत पधारे।
जहिण जहिणगे पसरो घन सारे ॥४२॥
तपा मरे ते इक रस बारि।
बरखा कीनसि मेघ किदारि३।
-महां पखंडी- सभिहिनि जानो।
-दैश ठानि गुर को निकसानो ॥४३॥
झूठो हुतो फुरी नहिणबानी।
गुर दासनि४ कहि दीनसि पानी।
होति भोर श्री अंगद आनहु।
निज अपराध छिमापन ठानहु५- ॥४४॥
इमि श्री अमरदास तहिण करि कै।
गमनो गुर दिश प्रीति सु धरि कै।
परम प्रसंन रिदै हुइ गइओ।
प्रापति डेरे महिण चलि भइओ ॥४५॥

१भाव श्री अमर दास जी ने।
२हज़डी।
३बज़दल ने खेतां विखे।
४गुरू जी दे दास ने।
५माफ करवाओ।

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