Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 23 of 494 from Volume 5

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३६

जाति अचानक अुर लगि धरका२।
शाहु निकट तूरन चलि गयो।
गुर बैठे दिखि दुखि अति भयो ॥८॥
हाथ जोरि बोलो ढिग शाहू।
मनके हुते मोर घर मांहू।
रहे खोजि सो अबि नहि पाए।
पुन नर ब्रिंद बग़ार पठाए ॥९॥खोज रहे नहि कित हूं पाए।
सभि थल ते छूछे नर आए।
अबि जे देर करो दिन कोइ।
आनहि खोज नगर जिस होइ ॥१०॥
इम कहि चंदू तूशनि होयो।
शाहु बदन गुरु को तबि जोयो।
रिस कुछ कहो पिखो इत कहां३।
प्रभू दरगाह एक सम जहां ॥११॥
बदला पित को लेवैण तहां।
नरक सग़ाइ पापीअनि महां।
कही पीर की इक अुर बीच*।
करो कुकरम जथा इह नीच ॥१२॥
दुतीए गुरू कहो बहु बार।
जानो निशचै करि निरधार।
बिना संदेह शाहु तबि कहो।
चंदू अपराधी मन लहो ॥१३॥
हमरे सीस दोश नहि धरीअहि।
किम दरगाह न बैर संभरीअहि।
इहां निबेरो बदला सारे।
हम को आशिख बचन अुचारो ॥१४॥
जे हमरी कुछ लखहु खुटाई।


१निछ पई।
२धड़का लगा।
३(गुरू जी ने) कहिआ, हे बादशाह! इधर की देखदे हो।
* देखो इसे अंसू दे अंक ३६ दी * निशान वाली टूक।

Displaying Page 23 of 494 from Volume 5