Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २४४

३४. ।बुज़ढं शाह प्रलोक। शाह ळ हार दी बर॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>३५
दोहरा: श्री गुर हरिगविंद जी,
कीनो सौच शनान।
पुहंचे बुज़ढंशाहु ढिग,
भगत आपनो जानि ॥१॥
चौपई: देखति बंदे पद अरिबंदा।
धंन धंन तुम को सुख कंदा!
अंत समेण मुझ दरशन दीन।
करो क्रितारथ संकट हीन ॥२॥
सुनि करि सतिगुर बाक अुचारा।
जीवन को चित चहि जि तुमारा*।
पिखहुअपर कुछु जगत तमाशा।
करहु अपनी पूरन आसा ॥३॥
हाथ जोर तिबि सकल सुनाई।
बरख पंच सै बैस बिताई।
ऐसो समां न प्रापत फेरी।
भए द्रिशटि गोचर तुम मेरी ॥४॥
महां तापसी जोगी घने।
तजि सुख जग, बैरागी बने।
अंत समेण जहि दरस तुमारा।
चाहति, नहि प्रापति तिस बारा१ ॥५॥
नेति नेति जिस बेद पुकारे।
शेख सारदा पाइ न पारे२।
सो तुम निकटि, भाग बड मेरे।
इम कहि बंदन करि तिस बेरे ॥६॥
अवनी तल महि पौढन कीनि।
भौतक+ तन३ ततछिन तजि दीन।


*खिआल है कि फकीर दसमो गुरू जी दे समेण तक रिहा है।
१चाहुंदे हन पर प्रापत नहीण हुंदा अुस (अंत) वेले।
२अंत नहीण पा सकदे।
+पा:-कौतक।
३पंज भूतक सरीर।

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