Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 236 of 473 from Volume 7

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) २४९

३०. ।साथीआण ळ कसेरे वलोण ग़िआत॥
२९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>३१
दोहरा: सरब भेव को जानि करि, निकसनि हेतु अुपाव।
रचति सुमति करि आपनी, जोण लागहि निज दाव ॥१॥
चौपई: -किस प्रकार इहु सुपतहि सारे।
लखहि न ग़ीन तुरंगम डारे।
सो अुपाव मो कहु बनि आवहि।
जागहि जबि सभिबहुत जगावहि- ॥२॥
रिदै बिचारि अुपाव अरंभा।
जिस ते होवहि सभिनि अचंभा।
सतिगुर को धरि धान मनावहि।
-अपनो कारज आप बनावहि- ॥३॥
हुते हयनि के सेवक सारे।
राग रंग करि मोदति भारे१।
कैफ२ कंचनी३ महि धन खोवहि।
बारंबार तमाशो जोवहि ॥४॥
इक दिन बैठि सभा महि सारे।
हास बिलासन बाक अुचारे।
दास कहैण सुनि भ्रात कसेरे!
रहो नवीन आइ इस डेरे ॥५॥
अधिक चाकरी सभि ते भई।
शाहु निकटि ते बखशिश लई।
नहि भ्रातनि महि ग़ाफत करी४।
इहु आछी नहि तुझ ते सरी ॥६॥
सुनि बिधीए अुर हरख अुपंना।
-कारज बनो भलो- मन मंना५।
कहनि लगो भ्रातनि अनुसारी।
कोण न करोण मैण खुशी तुमारी ॥७॥


१रागां रंगां विच बड़े खुश रहिं वाले।
२शराब।
३वेशवा।
४रोटी ।अ: ग़ात = खांा। दाअवत॥
५मन विच जाणिआण।

Displaying Page 236 of 473 from Volume 7