Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 241 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५६

बढी पास जिह शांति न आवति।
सुकचति चित करि नहीण बुलावति१ ॥७॥
असमंजस महिण सेवक परिओ।
अपनो बिरद संभारन करिओ।
जिमि चात्रिक की२ पास बिचारु।
जलधर३ धावहि करुनाधारि ॥८॥
बूझि प्रेम४ निज बचन सम्हाला।
अुठि करि गमने दाल बिसाला*।
रहो निकटि जबि गोइंदवालू।लखि श्री अमर अुठे ततकालू ॥९॥
हित सनमान अगारी गए।
मनहु प्रेम धरि मूरति धए।
देखि दूर ते द्रिग जल छाए।
धाइ परे चरननि लपटाए ॥१०॥
पकरि भुजा गर संग लगाइव।
दुह दिश प्रेम अधिक अुमगाइव।
कर सोण कर गहि करि पुन चले।
गान विराग मनहु दो मिले ॥११॥
पुरि महिण नहीण प्रवेशन कीनसि।
सलिता कूल ललित को चीनसि।
जहां बिहंगन के शुभ जोटे।
बोलति आपस महिण सुर छोटे५ ॥१२॥
चलति प्रवाह बिमल जलजाला।
मछ कछ अुछरति सज़छ बिसाला।
सुंदर हुतो सथान अुतंगा६।


१चिज़त विच संकोच करदे हन, (कि खेचल ना होवे इस करके) बुलांवदे नहीण (साळ भाव गुरू
अंगद जी ळ)।
२पपीहे दी।
३बज़दल।
४प्रेम देख के।
*पा:-दया बिसाला।
५महीन अवाग़ नाल बोलदे।
६अुज़चा।

Displaying Page 241 of 626 from Volume 1