Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६०

तिस छिन नेम एव करि लीनसि।
-अबि इस को अपनी नहिण जानोण।
कीनो गुर अपराध पछानोण ॥३१॥
कारज इस के साथ न करौण।
नहिण ममता१ को मन महिण धरोण-।
जबि लग महि महिण२ तन कौ धारौण*।
तिस के संग न कछू सुधारौण+- ॥३२॥
छाती साथ लाइ सो हाथ।
चले जाति संग श्री गुर नाथ।
एक हाथ दाहन ते तबिहूं।
क्रिया सुधारति भे तन सबिहूं ॥३३॥
जेतिक तन आदिक की कारे३।
नहीण बाम सोण कबहूण सुधारे।
इहु श्री अमर कहो++, कस करी४।
अंग अंग गुर भगती धरी५ ॥३४॥
इस बिधि अपर जि को नर करे।
भुगति मुकति लहि भवजल तरे।
श्री अंगद अवलोक प्रसंने।
कर सु छुडाइओ*+ कहि धंन धंने ॥३५॥
अुर महिण जाण ते करति बिचारा।
-इह देवहिण अुपदेश अुदारा।
भगति करहिण नर बिच सति संगति।

१कि इह मेरी है।
२धरती विच।*पा:-धारो।
+पा:-सुधारो।
३सरीर दी किरिआ।
++पा:-कहो।
४काबू कीती
(अ) ताड़ना कीती
(ॲ) कैसी कीती भाव किअुण कीती? (अुत्र) कि अुन्हां ने अंग अंग विच गुर भगती धारन कर रज़खी
सी।
५भाव गुर अंगद जी ने अुन्हां दा हज़थ संकोचिआ देख के भगती भाव समझ के धंन धंन आखिआ
ते हज़थ छाती तोण छुडा दिज़ता।
*+पा:-कर छोडिओ बड।

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