Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २६०

३७. ।खीवा।भिज़खी॥
३६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>३८
दोहरा: कूच भुपालां ते करो, तेग बहादर राइ।
आइओ खीवा ग्राम पुन, अुतरे सहिज सुभाइ ॥१॥
चौपई: ग्राम बिसाल बसति सो अहै।
सिंघा राहिक इक तहि रहै।
सहिज सुभाइक सो चलि आवै।
दुति त्रै घटिका बैठि सिधावै ॥२॥
इक दिन वहु बैठो जबि आई।
तुरत चलयो अुठि कै पिछवाई।
बूझो गुर कोण तुरत सिधारा?
काज कौन अस भौन मझारा? ॥३॥
सिंघा कहै न कारज कोई।
इक के सदन सगाई होई।
बाणटति हैण सभि को मिशटान।
भए लोक इकठे तिस थान ॥४॥
तहां जाइ कै निज बरतावा।
लै आवो, इस हेतु सिधारा।
सुनि सतिगुर बोले करि करुना।
अबि ते कबहि जाहु किस घर ना ॥५॥
तुव बैठे निज सदन मझारे।
पहुचहि आइ जुगल बरतारे१।
सुनि कै राहक सिदक कमावा।
बैठो निकटि न अनत सिधावा२ ॥६॥
कहति भयो तुम पुरख बडेरे।
हम से तुम चेरनि के चेरे३।
बाक अुचारनि करि हो जथा।
तातकाल फुरिहोवहि तथा ॥७॥
अुत जिस के घर भई सगाई।


१दो वरतारे, दो छांदे।
२होर थे नां गिआ।
३साडे वरगे आप दे दासां दे दास हन।

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