Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 25 of 501 from Volume 4

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३८

४. ।सगाई दे तिलक दी बिलकुल तिआरी॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>५
दोहरा: गमनी सुधि गंगा निकट,
लागी सो अबि आइ।श्री जग गुरु सोण बूझि के,
अुतसव कीनि सुहाइ ॥१॥
चौपई: नारि सुहागणि ब्रिंद हकारी।
बसन बिभूखन सुंदर धारी।
मंगल मूल धरायो ढोलि।
बाजनि लगो गाइ सुठि बोलि ॥२॥
लघु निशान अरु बजी नफीरैण१।
पहिरैण चीर नवीन सरीरैण।
कोकिल कंठी मिलि मिलि टोली।
अुमग अनद बधाई बोली ॥३॥
मानि सौ गुनी सीस चढावति।
गंगा अनद कहो नहि जावति।
बादित बजति हरख भरपूरा।
जहि कहि अुतसव होवति रूरा ॥४॥
सूखम बसन कुसुंभी बरन।
पहिरनि करे रुचिर आभरन२।
मधुर बचन* ते चंपक बरनी३।
गारी देति+ मिली गन तरुनी ॥५॥
पूरन भवन भयो मुद ठानति।
सभिहिनि को गंगा सनमानति।
म्रिदुल गिरा ते निकटि बिठावति।
अुमग अुमग सगरी त्रिय गावति ॥६॥
कहैण ब्रिंद नर नारी ऐसे।
बितहि जामनी तूरन कैसे।
होति प्रात के अुतसव नाना।

१तूतीआण।
२गहिंे।
*पा:-बरन।
३चंबे वत रंग वालीआण।

Displaying Page 25 of 501 from Volume 4