Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) २६५
लरि लशकर जिस केर बिनाशा ॥१३॥
महां दुशट बड खोट करंता।
सदा ध्रोह सभि संग कमंता।
नवम गुरू सोण बिगरो मूड़्हा।
पापी दैख कमावै गूड़्हा ॥१४॥जिस ने बाप आपनो मारो।
भ्रात संघारति मोह न धारो।
संत साध को अदब न राखै।
दे सग़ाइ कै मारन भाखै ॥१५॥
तुम तौ तिस को अधिक बिगारा।
लाखहु लशकर लरति संघारा।
खरचो लाखहु दरब हंगामे१।
कीनसि हानि इमान तमामे२ ॥१६॥
पकरन हित ही चाहित रहो३।
सकल भेत रावर ने लहो।
अबि समीप तिस के का जाना।
करहि अवज़गा मूड़्ह महाना ॥१७॥
लाखहु सैन सुनति चढि धावै।
नहीण दुरग, थिर है अटकावैण।
द्रोही महां, दुशट, रिपु संतन४।
तुरकेशुर अुर लखैण मतंत न५ ॥१८॥
प्रभू जी! इहां रहनि ही आछो।
कोण गाछन दज़छन बछ बाछो६।
सभि ते सुनति गुरू पुन कहो।
पुरख अकाल सहायक रहो ॥१९॥
कोणहूं धीरज छोरि न करीअहि?
देश बिदेशन सैल निहरीअहि।
१जुज़ध पर लखां रुपज़या (औरंगे ने) खरच कीता है।
२अुसने सारा ईमान नाश कीता।
३(आप ळ) पकड़न वासते ही (एह सभ कुछ) करदा रिहा।
४संतां दावैरी।
५नुरंगे दे दिल दा पता नहीण जाणीदा।
६दज़खं ळ जाणा किअुण हिरदे विच चाहुंदे हो? ।बज़छ=वज़खी, भाव दिल। संस:, वकश॥।