Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) २६५

३०. ।श्री हरि गोविंद जी ळ ताप दा खेद॥
२९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>३१
चौपई: श्री गुरु हरि गोबिंद जी, खेलति लरकनि संग।
अजर बिहारति१ दौरते, देखति जननी गंग ॥१॥
तोटक छंद: तन भूखन चारु अदूखन के।
पिखि नाशक ब्रिंद कलूखनि के।
सुख देति महां सिख दासनि को।
रहि संग२ अज़गान बिनाशन को ॥२॥
दरसंति भले परसंति पगं।
हरखंति रिदै हरि पंथ लगं३।
फल देखनि को४ बड पावत हैण।तजि ब्रिंद बिकार सुहावति हैण ॥३॥
इम केतिक दोस बितीत गए।
बड डील शरीर सु होति भए।
तन धारनि को५ जिन सांग लयो।
निरबाहति तैसिय रीति कयो ॥४॥
इतक दोस चढो तनु ताप महां।
बहुकंपति अंग संताप लहा।
बहु बारहि बारि६ सु पानि करैण।
मुख सूकति जाति न होति थिरे७ ॥५॥
पिखि गंग सु बाकुल नदन को।
सुधि भेज दई जगबंदन को।
ढिग बैठि रही दुख पावति है।
प्रिय पुज़त्र पिखै तपतावत है८ ॥६॥
निज हाथ लगाइ रही तन को।
सुधि बूझति, पीर बडी मन को।

१वेहड़े विच विचरदे हन।
२अंग संग रहिके (अ) (कई) सिख नाल रहिदे हन।
३परमेशुर दे राह लगदे हन।
४दरशन दा फल।
५मनुख सरीर धारन दा।
६बहुत वेरी जल।
७टिकाअु नहीण हुंदा।
८पिआरे पुज़त्र दा ताप देखके दुखी हुंदा है (अ) तपतावत है = .......ळ तपा रिहाहै।

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