Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)२७०

तिम सिख लगे भगति अर गान ॥६॥
सुपत रहे बिशियन को सेव।
नहीण पछान सके गुर भेव।
तब श्री अंगद मुख पर लाली।
खिरो कमल जनु प्रभा बिसाली ॥७॥
निजानद महिण मगन महाना।
सभिहिनि महिण तब बाक बखाना।
सुनि पुरखा! श्री अमर सु पारे।
अबि तुम बैठहु थान हमारे ॥८॥
राज जोग को महद सिंघासन।
तिस पर शोभहु करिहु प्रकाशन।
कहि पहिराए बसत्र नवीन।
तिलक भाल१ निज कर सोण कीनि ॥९॥
भगति, विराग, जोग, तत गाना।
इन चारन को दीनि खजाना।
मन बाणछत दिहु जग महिण दान।
तोट न दिन प्रति, बधहि निधान२ ॥१०॥
तारक मंत्र३ सभिनि पर छाया।
वाहिगुरू मुख जाप जपाया।
ठांढी तोहि अज़ग्र नौ निधि।
दूजी दिश पिख अशट दशो सिधि४ ॥११॥
सनमुख खरी लछमी तेरे।
सुर, गंध्रब, किंनर गन हेरे।
बिज़दाधर५ आदिक सभि आए।
आगाकारी तुव समुदाए ॥१२॥
तीन लोक महिणमुज़ख महाने।
सभि कर जोर खरे अगुवाने।
निति अधीन रहिण, रिदे बिचारो।

१मसतक ते।
२खग़ानां।
३तारन वाला मंत्र = वाहिगुरू।
४अठाराण सिज़धीआण।
५देवतिआण दी इक किसम।

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