Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २७१

नमहु करति१, इन दिशा निहारो ॥१३॥
तबि श्री अमर नम्रि हुइ कहो।
इन सोण मैण कुछ काम न लहो।
करहुण कहां मैण इन को लोर।
बसहु रिदे पद पंकज तोर ॥१४॥
सभि के मन की जानहु सामी।
जिमि बरतहि तिम अंतरजामी।
यां ते मेरे मन की जान।
बसो रिदे नित काणख महान ॥१५॥
श्री अंगद सुनि पुन समझाइव।
बिना कहे इह सभि ढिग आइव।
करनहार आगा नित तेरी।
सगल भाति इन शकति बडेरी ॥१६॥
चहहु कहहु, नहिण चहहु, न कहीअहि।
ए सभि निकट आपने लहीअहि।
सकल जगत को तुझ गुर कीना।
राज जोग सिंघासन दीना ॥१७॥
सज़तनाम को सिमरन सारे।
अुपदेशहु, हुइ भगत अुदारे२।नरन हग़ारनि को कज़लान।
करो आप दे करि अुर गान ॥१८॥
प्रेम भगति मैण हेरि तुमारी।
बसि है दई सम्रिज़धी३ सारी।
पैसे पंच नालीअर एक।
ले बुज़ढे ते जलधि बिबेक४ ॥१९॥
ठांढे भए प्रदज़छन दीनी।
श्री गुर घर की रीति सु कीनी।
पैसे पंच अगारी धरे।


१एह तुहाळ नमसकार कर रहे हन।
२स्रेसट।
३ऐशरज।
४भाव गुर जी ने।

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