Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) २६९

३५. ।भाई राम कुइर जी॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>३६
दोहरा: अपर बारता कुछ कहौण,
रामकुइर की फेर।
सो सतिगुर की कथा कहु,
जानति जिम चखि हेर१ ॥१॥
चौपई: श्री गुर गोबिंद सिंघ सुजाना।
जग तारन सिज़खन अघ हाना।
तिन के निकट रहे सुख मानी२।
दरशन दरसहि सुभ मति गानी ॥२॥
गुर भांा जिन के मन भावै।
आठहु जाम एक लिव लावैण।
गुर पग पंकज प्रेम अपारा।
रिदै निरंतरि रहि इकसारा ॥३॥
तअू गुरू जी करि निज माइआ।
रामकुइर कहु मन भरमाइआ।
इस महि कुछ शंका नहि कीजै।
पूरब केतिक भे लखि लीजै ॥४॥माया प्रबल भ्रमावन करै।
अस नहि को, तिस छिन रहि थिरै३।
सतिगुर दे निज हाथ बचावैण।
सो अुबरै मन नहीण डुलावै ॥५॥
काग भसुंड४ खगेश५ जु अहैण।
प्रभू समीपी जो नित रहैण।
बहुर बशिशटादिक ब्रहम गानी६।
इन कै भयो मोह जग जानी ॥६॥
तअू सभिनि ते महिद महाना।


१जिवेण अज़खीण देखके अुह सतिगुर दी कथा ळ जाणदा सी।
२सुख मंनके।
३टिकिआ रहे।
४काकभसुंड।
५गरुड़।
६बशिशट वरगे ब्रहम गिआनी।

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