Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २७०

३८. ।बाबा गुरदिज़ता प्रलोक गमन॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>३९
दोहरा: लहि सुध तूरन सुर सरब, चढे बिमान पयान।
गुरु सुत के तन तजन ते, आए मंगल ठानि ॥१॥चौपई: जै जै मुख ते शबद अुचारे।
कुसमांजुल को भरि भरि डारे।
अनिक अपसरा हरखति नाचहि।
गावहि गीत मधुर सुर राचहि ॥२॥
सभिनि सुरनि अभिबंदन कीनि।
कहो करहु प्रसथान प्रबीन!
सभि देवन को बड अुतसाहू।
शुभ आगवन जानि कै पाहू ॥३॥
खशटम गुर को सुभट सपूत।
सपतम गुर को पित मति पूत१।
धंन धंनΒ कहि करि ले गए।
साजि आरती दरसंति भए ॥४॥
सभि सुर गमने जाइ पिछारी।
गुर सुत दिपहि बिमान अगारी।
तेज सहति सूरज जनु जाई।
गीरबान२ अुडगन समुदाई ॥५॥
जहि जहि शकति सुरनि की जावनि।
तहि लौ सभिहिनि कीनि पुचावन।
करि करि बंदन हटे पिछारी।
गुर सुत गमनो जाति अगारी ॥६॥
सभि सुर पुरि को हेरति जाइ।
अति अनद को रिदे समाइ।
पुन गुर पुरि लौ पहुचो जाई।
मिले सभिनि सोण बंदन गाई ॥७॥
अज़चुत पद महि जाइ बिराजे।
जिन के नाम लेति अघ भाजेण।


१पविज़त्र बुज़धीवाले।
२देवते। ।संस: गीराण॥

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