Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २७२

३६. ।तपत लोह। चंदू दी ळह॥
३५ॴॴपिछला अंसूततकरा रासि ४ अगला अंसू>>३७
दोहरा: भई जामनी आनि करि, छायो तिमर महान।
खरभर१ परो बिसाल तबि, जे जग अग़मत वान२ ॥१॥
चौपई: चलि आयो तबि गोरख नाथ।
सिज़ध चुरासी ले करि साथ।
मुरछित कीनि सिपाही सारे।
देखि अदेस अदेस अुचारे ॥२॥
सनमुख खरो होइ करि बोला।
दिढि निशचा अुर अधिक अडोला।
अजर जरनि तुम सम नहि आन।
हेरति सगरे भए हिरान ॥३॥
एतिक ताप सहे नहि डोले।
नसहि जगत जिन इक बच बोले।
तुम निज नेम निबाहनि करो।
दुशट बिनाशनि इज़छ न धरो ॥४॥
मैण अबि पापी को घर जेतो।
अवनी खंड३ अुलट दिअुण तेतो।
महां अवज़गा को फल पावै।
पुन जग महि नहि संत दुखावै ॥५॥
नांहि त दुशट हंकारी होइ।
देहि कशट संतनि सभि कोइ।
श्री सतिगुर सुनि करि कहि बैन।
मन संतनि के त्रास रहै न ॥६॥
हम ने करनो है अस खेले।
आइ अपर को बिघन न मेले।
होनिहार पर निशचा करनो।
इह संतन को मत बर बरनो ॥७॥
इही बात अबि दे करि जावो।१खरबराट।
२जो जगत (विच) करामात वाले सन (तिन्हां विच)।
३धरती (नालोण) तोड़के (अ) प्रिथवी दा (इतना) टोटा।

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