Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४१
तहां गुरू आनि बनैण केवट जहाज के।
सागर गंभीर पर प्रेम ते अछोभ नहिण
भनति संतोख सिंघ गुन महांराज के।
दैया राज ताज के, ब्रिधैया सुख साज के
रखैया दास लाज के करैया कवि काज के ॥१८॥
भीर = भीड़, तंगी, औख, मुशकल। धीर = धीरज।सथंभ = थंमां। मुराद है अहिज़लता तोण।
महांबीर = बड़े बहादुर। रज़छक = रज़खा करन वाले।
दुखद = दुखदाई। समाज = समूह, इकज़ठ
दुखद समाज-तोण मुराद है, दुख देण वाले सामानां दे समूह।
तरंग चै = लहराण दे समूह = ।संस: चय = समूह॥।
अुतंग = अुज़चे अुज़चे। केवट = मलाह।
गंभीर = डूंघे। डूंघे पांी अडोल हुंदे हन, इस लई मुराद अडोल तोण है; पद-
गंभीर-केवल पांी दे डूंघ वासते नहीण वरतीणदा, पर सुभाव दे डूंघा पन,
अडोलता, अछोभता अरथां विच वी वरतीणदा है।
अछोभ = जो दुखे ना।
अछोभ नहिण = जो अछोभ ना रहि सके, जो दुखे। भाव, दूसरे दा दुख देखके
दुखी होवे। भाव हमदरदी विच आअुणा।
भनति = कहिणदा है। दैया = देण वाले, दाते।
ब्रिधैया = वधाअुण वाले। साज = समान। ।फारसी, साग़॥
अरथ: (श्री गुरू गोबिंद सिंघ जी) दासां ळ भीड़ आ पई ते धीरज देके थंभे वाणू
(मग़बूत) कर देणदे हन, (अते जद अुन्हां ळ) दुखदाई समाज आ घेरदे हन,
(तां आप) महां बीर रज़छक (हो खड़ोणदे हन)। (जिथे दासां दे बेड़े अगे)बिघनां दे त्रंग इकवारगी ही अुज़चे-अुज़चे अुज़ठं लग जाण ओथे गुरू जी
जहाज दे मलाह आ बणदे हन। संतोख सिंघ (गुरू) महाराज दे गुण (कथन
करदा होया) कहिणदा है कि (आप) समुंदर वाण अडोल हन, पर (जीकूं
समुंदर प्रेम तोण अछोभ है तीकूं गुरू जी) प्रेम तोण अछोभ नहीण हन। राज ताज
दे दाते हन, सुख दे सामानां दे वधाअुण हारे हन, दासां दी लाज रज़खं वाले
हन, ते कवीआण दे कंम सवारण वाले हन।
भाव: सतिगुरू जी दे सारे गुण गिंके अंतम गुण विच सारी मुराद खुल्हदी है।
कवि जी हुण नवाण पातशाहीआण दा इतिहास लिखं लगे हन, इह कंम महां
कठन है, ते आपदा चिज़त अपणी असमज़रथा तोण डोलदा है, इस करके अुस
दी निरविघन समापती लई सतिगुर वज़ल तकदे हन, ते दज़सदे हन कि अुह
मुशकलां वेले, दुज़खां वेले, आसा दा जहाज डुज़बण वेले दासां ळ बहुड़दे हन।
हैन अडोल किअुणकि पूरन हन, पर प्रेम दी सुर जद कंनीण पवे तां द्रवदे
हन, तद अुह ग़रूर कवी दे काज विच सहायता करनगे। अुह दासां दी लाज