Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २७८
४०. ।दिज़ली विखे निवास॥
३९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>४१
दोहरा: इस प्रकार श्री सतिगुरू, पुरी प्रवेशे जाइ।
सरब भांति की सेव करी, हरखो जै सिंघ राइ ॥१॥
चौपई: खान पान करि बिबिध प्रकारे।
कीर जामनी सैन सुखारे।
अुठति भए पुन बडी सकारे१।
सकल सौच जुति मज़जति बारे॥२॥
जैपुर नाथ सु पोशिश पाए।
चहिति शाहु ढिग बर बताए।
प्रथम आइ श्री गुरू समीप।
पद पर बंदन कीनि महीप ॥३॥
शाहु निकटि मैण चाहति जायो।
नमो हेतु रावर के आयो।
सहित प्रसंसा सुधि कहि दैहौण।
नम्रीभूत भले तिस कैहौण ॥४॥
सुनि सतिगुर तिस कहो बुझाई।
हमरो मेल न बनहि कदाई।
इम कहिबो सुनिबो तुम करना।
तुरकेशुर संग बनहि न अरना२ ॥५॥
तोरि प्रीति करि हम चलि आए।
-३करनो प्रन को- दूत सुनाए।
-शाहु समीप राखियो पति को।
चलि इक बार कीजीए हित को४- ॥६॥
इज़तादिक सुनि कै तव आशै।
मिले आइ इक प्रेम प्रियासै४।
नांहि त किमहु न आवन होइ।
करिओ प्रन हम पूरहि सोइ ॥७॥
१वज़डी सवेरे।
२वाह पैंा।
३(तेरी वलोण) दूत ने (साळ) सुणाइआ सी, कि प्रण (आपणा पूरा) करना, (पर) इक वार
पातशाह कोल पत रखा दिओ, ते हित करके चल चलो।
४प्रेमी दी आशा करके।