Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) २७७

३६. ।जोगा सिंघ॥
३५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>३७
दोहरा: रामकुइर की कथा मैण,
बरनी कुछक बनाइ१।
अपर गुरू इतिहास को,
सभि श्रोतानि सुनाइ ॥१॥
चौपई: इक सिख की साखी सुनि लेहु।
जथा सिदक महि तांहि सनेहु।
जोगा सिंघ हुतो तिस नामू।
रहै कितिक चिर सतिगुर धामू ॥२॥
देश पिशावर तन की वासी।
सेवा करहि बहुत गुर पासी।
दरशन करहि सिदक को ठानहि।
प्रभू रिझावनि करहि महानहि ॥३॥
केतिक वरख बीत जबि गए।
तिस के मात पिता तहि आए।
दरशन करि कै अरपि अकोर।
बोले जुगल हाथ करिजोरि ॥४॥
महांराज! इस को अबि बाहू।
रहो समैण बहु रावरि पाहू।
आइसु देहु बाह करिवावै।
बसहि धाम कुछ, पुन इत आवै? ॥५॥
श्री प्रभु सुनि कै सिख सन भाखा।
जोगा सिंघ कहां अभिलाखा?
हाथ जोरि तिन तबहि अुचारी।
मो प्रण रावर के अनुसारी ॥६॥
जिम आइसु दिहु मैण तिम करिहौण।
अपर न कान किसू की धरिहौण।
क्रिपा सिंधु करि क्रिपा अुचारी।
अबि तूं जाहु निकेत मझारी ॥७॥
अपनो वाहु करावनि करौ।


१भाव कविता विच बणाके।

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