Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) २८१

कहो संदेसा पित के साथ ॥२९॥
छुधति होइ किम संकट धारो।
मुझ को जीवति ही निरधारो।
बिन आमिख नहि अचहि अहारा१।
यां ते पठो तिनहु हित मारा२ ॥३०॥
मोहि मरो लखि शोक न कीजै।
खान पान करि आनद थीजै।
सुनि ले करि सो मानव आयो।
सुत को कहिबो सकल सुनायो ॥३१॥
सुनति गुलाब राइ सो हरखो।
शकति सहत निज सुत को परखो।
ले करि मास बनाइ रिंधायो।
निज घर महि तिम भाखि पठायो ॥३२॥
सुनि करि सुत की मात रिसानी।
भई कोप तिह निठुर बखानी।
आमिख खान बिना अकुलावै।
अनिक फरेबनि बात बनावै ॥३३॥
पुज़त्र नहीण पारो जिह रिदै।
आमिख अचवन प्रिय जद कदे।
कहां शोक अुपजहि बिरलापहि।
छुधति कहां, जिन सुत ब्रिह तापहि३ ॥३४॥
शुभगुन सहत पुज़त्र अस मरै।
पिता निठुर४ सादनि हित धरै।
खाइ अघावहि आमिख सोई।
हम को शोक दुखति बहु होई ॥३५॥
इज़तादिक बहु कहो कठोर।
गयो गुलाब राइ की ओर।
घर की कहिवति सकल सुनाई।


१(मेरा पिता भोजन) नहीण खांदा मास तोण बिनां।
२इस करके मार के (सहिआ) भेजिआ है।
३भाव जिन्हां ळ पुज़त्राण दा विछोड़ा तपा रिहा है अुहनां ळ भुज़ख कीकूं लगदी है।
४कठोर (मन वाला)।

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