Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २८५
२९. ।स्री गुर अमर जी दी कथा दा आरंभ, चुबारा साहिब।॥
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दोहरा: अबि* श्री सतिगुर अमर की, कथा कहौण रुचि ठानि।
श्रोता सुनहु प्रसंन है, दिहु सिज़खी मुझ दान ॥१॥
पाधड़ी छंद: मै सुनी जितक सिख मुख दुवार।
अर लिखी पठी जहिण कहिण अुदार।
सो सभ बनाइ छंदन मझार।
अबि करव निरूपन रीति चारु ॥२॥
श्री अमर दास जिम मारतंड१।
गादी गुरूनि संदन२ अखंड।
तिस पर अरूढ३ थित होइ आप।
कीनसि प्रकाश सभि दिश प्रताप ॥३॥
गुरपुरब आदि करि कै खडूर।
गोइंदवाल पहुंचे हदूर४।
दीनानि नाथ गुरता सु पाइ।
हुइअनणद मगन प्रविशे जु जाइ ॥४॥
इक हुतो सदन पर सदन चारु५।
तिस पर अरूढि दिय दर किवार६।
निकसे न वहिर, नहिण को बुलाइ।
थित हुइ समाधि गंभीर लाइ ॥५॥
है करि इकंत आनद लीनि।
जबि महद जोति प्रापत प्रबीन।
नहिण सकहि बेद जिस को बताइ।
मन गिरा जुगति जिह नहिण लखाइ७ ॥६॥
अस अनद सिंधु महिण सथित होइ।
जिस एक बूंद लहि जगत जोइ।
*पा:-अब।
१सूरज।
२गादी रूपी रथ।
३चड़्हके।
४श्री जी आप।
५घर ते सुहणा घर भाव चुबारे तोण है।
६तखते बंद कर दिज़ते।
७मन बाणी समेत जिस ळ लख नहीण सकदा।