Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २८५

४१. ।बरे। गोबिंद पुरे। रागे। गुरने। मकरोड़। धमधां॥
४०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>४२
दोहरा: तहि ते चढि श्री सतिगुरू, बरे ग्राम महि आइ।
करो निवास सु थान सुठ, मिले लोक समुदाइ ॥१॥
चौपई: करि सेवा दिन कुछक टिकाए।
हुतो चुमासा घन बरखाए।
तहां मोठको खेत बिजाइ१।
चारति भए तुरंगनि पाइ२ ॥२॥
महिखी को नित प्रति बहु चारे।
पसू पुशट कीनसि इकसारे।
संगति दूर दूर ते आवहि।
सगल दे ते भोजन खावहि ॥३॥
आनि अुपाइन बहु अरपंते।
रहैण कितिक दिन दरस करंते।
शरधा सहित सुनहि अुपदेश।
जनम जनम के कटहि कलेश ॥४॥
जो मसंद जिस देश मझारे।
ले गुर कार होहि करि तारे।
संगति अपने संग लगाइ।
आवहि सतिगुर को दरसाइ ॥५॥
इक मसंद दरसहि रहि पास।
संगति अनिक संग हुइ तास३।
अनगन धन सतिगुर ढिग आवै।
परअुपकार हेतु सभि लावैण ॥६॥
नरनि हग़ारनि को भल४ करिहीण।
दरशन दे करि दोशनि हरिहीण।
बितो चुमासा तिस ही थान।
मग के सूकि गए बहु पानि ॥७॥
बरे ग्राम पर भए प्रसंन।

१बिजवाके (गुरू जी ने)।
२घोड़ीआण वाड़ के।
३तिस दे नाल।
४भला।

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