Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) २९२

३३. ।भाई गुरदास ते बाबा बुज़ढा जी मोहन जी पासो पोथीआण लैं गए॥
३२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>३४
दोहरा: आगे सतिगुर की कथा, कहौण जथा मति होइ।
तथा सुनहु श्रोता निपुन! मथा सार है जोइ ॥१॥
श्री ग्रिंथ साहिब शबद, करहि बीड़ को एक१।
गिरा पंच पतिशाहि की, पूरन आदि बिबेक२ ॥२॥
निसानी छंद: इम श्री अरजन सतिगुरू, तहि समां बितायो।
गान शिरोमणि धीर बड*, बच मधुर सुहायो।
अुपमा रतनाकर३ दिपहि, गंभीर बिसाला।
सिख सेवक जल जंतु गन, आकुलत अुजाला४+ ॥३॥
सति, संतोख, सुशीलता, सुच, सुंदरताई।
दया, छिमा, मुदता, महां; कोमल, सरलाई५।
अनसूयू६, धीरज, धरम, गुन आदिक गाना।रतन बिसाल प्रकाशते, जाती इह नाना७ ॥४॥
सार असार बिचारिबो, गंभीर सु नीरा८।
प्रेम छोभ ते भगति निति, बीची सुख सीरा९।
संत हंस बिलसति सदा, जम ताप बिहाए१०।
छेम अनेकनि को करैण, इम सिंधु सुहाए ॥५॥
शबद करति चित चितवते, -इक थान लिखीजै११।
पठहि सुनहि सिख सुख लहहि, सिखी थिर थीजै++।

१शबद इक (थां करके) श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी दी इक बीड़ (गुरू जी) करनगे।
२गिआन आदि कर पूरन।
*पा:-धीर म्रिदु।
३समुंदर।
४सिख सेवक सारे जल जंतू हन (ते समुंदर दी) विआकुलता (लहिराण समान है) प्रकाश (दा
लहिराअु) ।संस: आकुलित = चंचल, विआकुल॥ (अ) (इस समुंदर विच) जल जंतूआण समान
सिज़ख विचर रहे हन। ।आकुलता = चंचलता भाव विचरना। अुजालना = प्रकाशना, होणद, होणा॥
+पा:-सिज़ख सेवक जल जंतू से सोभति तिहकाल।
५सूधताई।
६ईरखा रहत।
७(पिज़छे जो गुण गिंे हन) इह नाना जाति दे रतन प्रकाशदे हन।
८(इही) डूंघा जल है।
९गुरू रूप समुंद्र विच प्रेमरूप छोभ तोण नित भगती रूपी लहिराण सीतल ते सुखदाई (अुठदीआ
हन)।
१०दूर हुंदा है।
११इक थां लिखी जावे।

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