Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २९५

इक पंडित की प्रीति लखि, गुर अंतरयामी।
जिस के मन मैण कामना -मैण कथा सुनावोण।
करौण भला मैण अपनो, सतिगुरू रिझावौण- ॥१७॥
तिस के अुर की जानि कै, गुर कथा कराई।
दिज केशो गोपाल कहि, बिज़दा निपुनाई१।
आवै चौथे जाम दिन, इतिहासु प्रकाशै।
सुनैण सतिगुरूबैठि करि, संगति इक पासै* ॥१८॥
बहुर रबाबी आइ करि, गुर शबद सुनावैण।
राग रागनी धुनि सहत, सुंदर बिधि गावैण।
कथा कीरतनि करति ही, निसु जाम बितावैण।
सिमरन हुए सतिनाम को, इक चित लिव लावैण ॥१९॥
पुनि सुपतन हित सेज पर, सतिगुरू बिराजैण।
इस बिधि को विवहार निति, जिन पिखि अघ भाजैण।
अपर नेम ऐसो करो, श्री अमर सुजाना।
सेत बसत्र तन पर धरैण, निति बिमल महांना ॥२०॥
अपर बसत्र नहिण ढिग रखहिण, जब दूसर लेईण।
पूरब अूपर होइ जो, किसि रंकहि देईण२।
दुतिय रहहि नहिण सदन मैण, ऐसे कहि दीना।
खैबे हेत जु अंन हुइ, निति आइ नवीना ॥२१॥
जितिक देग महिण लगहि, तबि सो सरब पकावैण।
सिख संगति गन रंक३ जे, मन भावति खावैण।
बचहि शे सो नहिण रखहिण, देवहिण किसु ताईण।
किधौण पुरी महिण पशू गन, तिन सकल खुलाईण ॥२२॥
अगले दिन हित नहिण रहहि, इक मनुज अहारा४।
आइ वहिर ते दे हुइ, इम नेम सुधारा।
अपर वसतु गिनती कहां, जल कलसनि मांही५।
सभि गिराइ छूछे धरहिण, राखहिण कुछ नांही ॥२३॥१विज़दा विच प्रबीन।
*पा:-हुइ संगत पासै।
२किसे कंगाल ळ बखश दिंदे।
३सारे रीब।
४इक मनुख दे खां जोगा बी, अहार अगले दिन नहीण रखदे सन।
५घड़िआण दा पांी।

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