Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 290 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३०५

३२. ।राजे ने सिज़ख होणा, लकड़ां भेजनीआण,
सावं मज़ल दा मन दा मान हरना॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>३३
सैया छंद: भयो अनद बिलद सभिनि कै
मंगल गावहिण अनिक प्रकार।
बड अुतसाह करो महिपालक
दीननि दीनसि दरब अुदार*।
लघु दुंदभि१ गन संग नफीरन२,
बाजनि लागेदुरग सु दार३।
भाव कलावति४ करति राग धुनि,
बजहिण म्रिदंग५, रबाब, सतार ॥१॥
महां अमंगल६ प्रिथम हुतो जहिण
तहिण तब मंगल रचहिण बिसाल।
राजा रानी सचिव सहत सभि
सावं मल आगे ततकाल।
हाथनि जोरि अकोरन अरपहिण
गर पहिराई फूलनि माल।
चमरु ढुरावहिण सुजस बधावहिण
सीस निवावहिण धरि पद भाल७ ॥२॥
सिवका८ पर चढाइ तहिण लाए
सुंदर मंदर अंदर थान।
सादर डेरे को करवायो
खान पान सभि दीनसि आन।
बहुत मोल को पलणघ डसाइहु
आइ सभिनि ने बंदन ठानि।


*पा:-अपार।
१छोटे धौणसे।
२बंसरी।
३किले दे दर अज़गे।
४भज़ट ते कलौत।
५ढोल।
६शोक।
७मज़था पैराण ते धरके।
८पालकी।

Displaying Page 290 of 626 from Volume 1