Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३१०
बंधि बंधि करि सिर पर पाग।
आए सिंघ सभा शुभ लाग ॥७॥
करि करि दरशन सिर ते नमैण।
थिरो खालसा सभि तिह समैण।
ताअु देति मूछनि पर दोई१।
कर ते शमस सुधारति कोई ॥८॥
भीमचंद ते आदि पहारी।
गुरू सभा सभि तिनहु निहारी।
दूरबीन को लाइ सु तबै*।
गुर जुति पिखो खालसा सबै ॥९॥
एक तुरक तिन के ढिग खरो।
जमादार बहु नर को करो।
सभि गिरपतिनि साथ तिन कहो।
गुर को हतनि सुगम हम लहो ॥१०॥
इस थल ते मैण तोप चलावहु।
बैठे सहित प्रयंक अुडावहु।इलम२ मोहि को अहै बिसाला।
तक मारोण इत खरो सुखाला ॥११॥
बधौण शिसत सतिगुर की ओरा।
भरो ग़ोर ते पहुचहि गोरा।
नित की कलहा सकल मिटावौण।
सभि राजनि को सुख अुपजावौण ॥१२॥
पावौण दरब इनाम घनेरो।
इलम बिलोकि लेहि सभि मेरो।
गुर बिन बहुर लरहि को नाही।
आप आप को सभि मिट जाहीण३ ॥१३॥
सभि गिरपती सुनति हरखाए।
इह तौ कारज सुगम बनाए।
१दोहां मुज़छां ते (खालसा)।
*दूरबीन १६५७ बि: दे लगपग ईजाद होई ते अज़धी सदी विज़च प्रचार चोखा पा गई सी, ते इस
वेले संमत १७५७ लग पग है।
२(गोलदाग़ी दी विज़दा।)
३(फेर) सारे आपो आप होके हट जाणगे। भाव सिज़ख सैना खिंड फुट जाएगी।