Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ३११मज़कै जाइ१ फग़ीहत भारी।
करी नुरंग को३ पिखि डर धारी।
तिस ही थल हम दीनो ध्रोहर२।
दया सिंघ पुन कहि कर जोरि ॥४२॥
थोरे दिवस बिते हम और।
तनक भनक सुनि३ अस इक ठौर।
हुतो ग़फरनामा तुम कर को।
जबि हम दे करि हटे वहरि को ॥४३॥
ततछिन हग़रत को दुख होवा।
पुन को अंतर गयो न जोवा४।
खोटी सुधि पसरी चहूं ओर।
दुर दुर कहैण न माचो शोर५ ॥४४॥
आगै तुम भावै तिम होइ।
जथा ब्रितांत, भनो तिम सोइ६।
सुनि सतिगुर कहि आछी कीनि।
मरहि नुरंगा बिलम बिहीन ॥४५॥
केतिक दिन महि सुधि पसरै है।
अूच नीच सगरे लखि लै हैण।
इम कहि सुनि कै सतिगुर संग।
दया सिंघ ढिग रहो अुमंग ॥४६॥
दिन प्रति कूच करति गुर पूरे।
कहूं अरहि मग दल के सूरे७।
लूट कूट लेण होति लराई।
केतिक मिलहि परहि प्रभु पाई ॥४७॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम ऐने दया सिंघ मिलन प्रसंग
बरनन नामसपतत्रिंसती अंसू ॥३७॥


१औरंगे दी खुआरी कीती।
२अमानत।
३थोड़ी कनसो (असीण कंनी) सुणी है।
४फिर किसे अंदर जाके डिज़ठा नहीण (पर)।
५छुप छुपके (शाह दी बीमारी कहिदे सी पर शोर नहीण मचिआ)।
६जिवेण हाल होइआ तिवेण कहि दिज़ता है।
७किधरे किधरे अड़दे हन राह विच गुरू दल दे सूरमेण।

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