Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४५
सुरतोण हींे होणा) ते गुबार (अज़गान) दूर हो गिआ। सतिगुराण दी मेहर नाल नाम
ते बाणी ने अगान दूर कीता ते सतिगुराण दीआण कुरबानीआण ते पंथ विच बीर रस
भरके घालां घालं नाल ग़ुलम दूर हो गिआ, ऐअुण जीव लोक सुखी ते प्रलोक सुहेले
हो गए, जिसदा इशारा कवी जी ने प्रलोक सहाइ ते रंकाण तोण राजे दे अरथ विच
कीता है।
१४. गुण शील वकतीआण दा मंगल।
चौपई: गनपति आदि बिघन के हरता।
ब्रहमादिक मंगल के करता।
सुर गुर आदि सुमति के दानी।
बालमीक आदि कवि बानी ॥२०॥
स्री वसिशट आदिक जे गानी।
इंद्र आदि दायक रजधानी॥
आदि अगसत तपीशुर सारे।
बास आदि बेदनि के पारे ॥२१॥
आदि जुधिशटर धरमग भारे।
अरजन आदि क्रिशन केपारे।
रामचंद आदिक मिरजादिक।
जनप्रिय श्री नरसिंघ जि आदिक ॥२२॥
श्री घनशाम आदि रस गाता।
श्री बामन आदिक छल जाता।
दसरथ आदिक पूर प्रतज़गा।
जोग भोग सम जनक ततज़गा ॥२३॥
गोरख आदि सिज़ध समुदाइ।
आदि कबीर भगत समुदाइ*।
बुज़ढे आदिक गुर के सिज़ख।
भए जु भूत भवान भविज़ख ॥२४॥
सभि को मैण अभिबंदन करिहूं।
क्रिपा करहु! गुर सुजस अुचरिहूं।
सूरज आदि जि करहिण प्रकाशहिण।
चंद आदि जे सीतल रासहि ॥२५॥
नारद आदिक प्रेमी जोई।
तथा:-गुरबाणी इसु जग महि चानं। ।सिरी: म: ३
*पा:-समुदाइ।