Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३१६
३३. ।राजे ने विदा होके हरी पुर जाणा ते सज़चन सज़च दा प्रसंग॥
३२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>३४
दोहरा: जुग लोकनि सुख दाति लहि, सावं मल हरखाइ।
महिमा जानी गुरूकी, -अपर न को अधिकाइ ॥१॥
सैया छंद: जथा जोग श्री सतिगुर कीनसि
मम मन को नासो हंकार।
संगति दई गुपति१ बसि होए
कारज सगरे दए सुधारि-।
मुदित होइ करि बिनै बखानी
आयो भूप सहत परवार।
सैना प्रजा सचिव संग सगरे
महिखी२ आदिक और जि दार३ ॥२॥
आगा रावर की अबि होवहि
दरशन करहिण समीपी आनि।
अभिलाखा तिन पूरन प्रापति४
करहिण बिलोचन सफल महान।
होहिण पुनीत, पाप सभि नासहिण,
पावहिण पुंन बंदना ठानि।
शरधा धरि धुरि ते इह गमनो
तुम अंतरजामी सभि जानि ॥३॥
श्री गुर अमरदास करि करुना
कहो देग ते भोजन खाइ।
नर संगी सभि ही संग आनै
इसत्री रूप न आवनि पाइ। विशेश टूक
पुन सावं अरदास बखानी
महांराज! सुनीअहि सुखदाइ।
चित आसा धरि अधिक प्रेम करि
कहि न्रिप सोण आई समुदाइ ॥४॥
करहु आप अभिलाखा पूरन
१गुपत रूहां, गुपतशकतीआण।
२पटराणी।
३इसत्रीआण।
४संपूरन कामनां प्रापत (होण)।